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कुर्सी है तो रिटायरमेंट भी होगा अल्पायु एक्सप्रेस न्यूज़ रविवार विशेष

जुलाई रविवार 26-7-2020
किरण नाई ,वरिष्ठ पत्रकार -अल्पायु एक्सप्रेस
कुर्सी है तो रिटायरमेंट भी होगा अल्पायु एक्सप्रेस न्यूज़ रविवार विशेष👈
सरकारी कुर्सी पर बैठने के समय यह बात जरूर ध्यान में रखें की रिटायरमेंट होने के बाद आपको भी लाइन लगानी है आम जनता की तरह
मुफलिसी में जी रहे कारगिल शहीद आबिद खां के परिजन
गफ्फार खां कहते हैं कि बेटे की शहादत पर गर्व है, मगर सरकार और अफसरों ने जो किया उसे कभी माफ नहीं करूंगा
पाली, हरदोई। कारगिल शहीद के परिजन दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। कारगिल युद्ध में दुश्मनों के दात खट्टे करने वाले अमर शहीद आबिद खां के माता पिता व भाई मुफलिसी में जीवन यापन कर रहे हैं। शहीद के मां-बाप को कभी 6 महीने तो कभी 9 महीने बाद पेंशन मिल पाती है। जो शासकीय सहायता मिली वह पत्नी लेकर अलग रहने लगी। शहीद के माता-पिता व भाई आज भी तंगहाली में जीवन यापन कर रहे हैं।
पाली कस्बे के मोहल्ला काजीसराय में 6 मई 1972 में जन्में आबिद खाँ का सपना था कि वह अपना जीवन सेना के लिए समर्पित कर दें। 5 फरवरी 1988 को उनकी यह ख्वाहिश पूरी हुई और वह सेना मे भर्ती हो गये। आतंकियों से मुठभेड़ के दौरान अकेले मोर्चा लेने और गिर जाने पर वहां से बचकर सकुशल चौकी पहुंचने पर आबिद को 1995 में सेना से मेडल भी प्राप्त हुआ था। 4 साल बाद 1999 में कारगिल की जंग शुरू हो गई जब आबिद खान बकरीद की छुट्टियों में अपने घर आए थे, तभी हेडक्वार्टर से बुलावा आ गया और टाइगर हिल फतेह करने के लिए भेजा गया।
30 जून को दुश्मन की गोलीबारी के बीच कई सैनिक शहीद हो गए। एक गोली आबिद के पैर में भी लगी। वे आगे बढ़ते हुए एक साथ 32 फायर झोंक दिए जिससे 17 पाक सैनिकों की लाशें धरती पर गिर गई। इसी बीच दूसरी गोली आबिद को लगी और वह शाहिद हो गये। आबिद के परिजनों का यह कहना है सेना के लोगों ने हम लोगों को धोखा दिया है। आबिद के पिता गफ्फार खान के मुताबिक, उनका एक बेटा मजदूरी करता है और उनके पास ही रहता है। सरकार ने एक बेटे को नौकरी देने का वादा किया था पर वह अभी तक पूरा नही हुआ।
कारगिल की लड़ाई में दुश्मनों के दांत खट्टे करते हुए खुशी-खुशी अपने प्राण न्यौछावर करने वाले शहीद आबिद खां का नाम इतिहास में दर्ज हो गया। मगर, सरकारी लापरवाही के चलते उनके परिजनों को कहीं का नहीं छोड़ा। शहादत के वक्त किए गए सभी वायदे धूल में मिल चुके हैं। माता पिता के बुढ़ापे की लाठी आबिद तो शहीद हो गए और उनके मां-बाप मुफलिसी में जीवन जी रहे हैं।
दो दशक पहले शहीद की प्रतिमा को लगवाने का वादा कर प्रशासन भूल गया। मोहल्ले का नाम जरूर शहीद को समर्पित किया गया था। लांस नायक आबिद खां 1999 में पाकिस्तान से हुई कारगिल की लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हो गए थे। लांस नायक शहीद आबिद खां के अंतिम संस्कार के मौके पर जिला प्रशासन ने परिवार के एक सदस्य को नौकरी और शहीद की प्रतिमा लगाने की घोषणा की थी
यह घोषणा अबतक दो दशक बाद भी पूरी नहीं हो पाई है। शहीद की मां के चेहरे पर झुर्रियां पड़ गई हैं। अपने बेटे की शहादत को याद कर वे गौरवान्वित होती हैं तो कभी-कभी सरकार को भी कोसती हैं और कहती हैं कि बेटे की शहादत देश के लिए हुई और अफसरों ने उस वक्त बड़ी-बड़ी बातें की थी।
मगर दुख इस बात का है कि इन अफसरों ने बेटे की शहादत का मोल तक नहीं समझा। सरकारें कई आईं और चली गईं मगर किसी ने शहीद के सम्मान के बारे में नहीं सोचा। अब इन सरकारों पर यकीन नहीं है, बस भरोसा ईश्वर का है कि वे ही न्याय करेंगे। शहीद आबिद खां की पत्नी फिरदौस बेगम जो भी सरकारी सहायता मिली वह लेकर अलग रहने लगी और शहीद के पिता गफ्फार खां, मां और भाई अलग रहते हैं।
शहीद का भाई मजदूरी करके गुजर बसर करता है। इनके पास बहुत कम जमीन है और यही उनकी आजीविका का साधन है। शहीद के मां-बाप को सरकार की ओर से बहुत कम पेंशन मिलती है और मगर वह भी समय से नहीं आती। गफ्फार खां कहते हैं कि बेटे की शहादत पर गर्व है, मगर सरकार और अफसरों ने जो किया उसे कभी माफ नहीं करूंगा। यह शहीद के परिजनों का सम्मान छोड़िए उनकी सुध तक नहीं लेते।